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chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय

chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय
जन्म : 29 जून 1861, पूसा, मुजफ्फरपुर (बिहार)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास
मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजल की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोंडा, कटोरा भर खून, भूतनाथ
संपादन : सुदर्शन (हिंदी मासिक)

निधन
1 अगस्त 1913

पहला अध्याय

बयान – 1 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंद लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने एक घोड़ा कसा-कसाया दुरुस्त पेड़ से बँधा हुआ है।

कुँवर वीरेंद्रसिंह कह रहे हैं – ‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफा तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चंद्रकांता की चिट्ठी मेरे पास लाए और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचाई, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चंद्रकांता से रखता हूँ उतनी ही चंद्रकांता मुझसे रखती है, हालाँकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किए कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चंद्रकांता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चंद्रकांता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रखा है, दूसरे उनके मंत्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चंद्रकांता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मंत्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बँधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिए उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गई है। आप को ले चलना अभी मुझे पसंद नहीं जब तक की मैं वहाँ जा कर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’

‘इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जा कर चंद्रकांता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चंद्रकांता की प्यारी सखी है और चंद्रकांता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देख कर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जाएँ।’

वीरेंद्र – ‘जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।’

तेजसिंह – ‘मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आ कर पुनः हमारे महाराजा के दर्शन कर गए हैं। न मालूम किस चालाकी से आए थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।’

वीरेंद्र – ‘मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फँसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चंद्रकांता से मेरी मुलाकात का बंदोबस्त करो।’

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेंद्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोल कर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गए।

बयान - 2 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अंदर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।

क्रूरसिंह – ‘देखो नाजिम, महाराज का तो यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाए कि चंद्रकांता को ले कर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रह कर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेंद्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जा कर खपा डाला जाए कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पा कर महाराज को मारने की फिक्र की जाए, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चंद्रकांता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएँगे।’

नाजिम - हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सभी को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?

क्रूरसिंह – ‘अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?’

अहमद – ‘तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिख कर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखला कर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।’

क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिख कर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा - ‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिए। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किए जाएँगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिए कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलट कर देते हैं।’

क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा - ‘इस वक्त हम लोग चंद्रकांता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चंद्रकांता जरूर बाग में गई होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता के बीच में क्या हो रहा है।’

यह कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा हुए।

बयान - 3 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिल कर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिए की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुंदर-सुंदर बुर्जियाँ अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चंद्रकांता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चंद्रकांता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़ कर चंद्रकांता के हाथ में दे रही है, मगर चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियाँ जबर्दस्ती बाग में खींच लाई हैं।

चंद्रकांता की सखी चंपा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चंद्रकांता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला – ‘न मालूम चंपा किधर चली गई?’

चंद्रकांता – ‘कहीं इधर-उधर घूमती होगी।’

चपला – ‘दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।’

चंद्रकांता - देखो वह आ रही है।

चपला – ‘इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।’

इतने में चंपा ने आ कर फूलों का एक गुच्छा चंद्रकांता के हाथ में दिया और कहा - ‘देखिए, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लाई हूँ। अगर इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’

वीरेंद्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चंद्रकांता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊँची-ऊँची साँसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी - ‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन-से ऐसे पाप किए हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समाई है। कहते हैं कि चंद्रकांता को कुँआरी ही रखूँगा। हाय! वीरेंद्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें की, मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कंबख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’

एकाएक चपला ने चंद्रकांता का हाथ पकड़ कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।

चपला के इशारे को समझ कर चंद्रकांता चुप हो गई और चपला का हाथ पकड़ कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रूमाल उसी जगह जान-बूझ कर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़ कर उसने चंपा से कहा - ‘सखी देख तो, फव्वारे के पास कहीं मेरा रूमाल गिर पड़ा है।’

चंपा रूमाल लेने फव्वारे की तरफ चली गई तब चंद्रकांता ने चपला से पूछा - ‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’

चपला ने कहा - ‘मेरी प्यारी सखी, मुझको चंपा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चंपा नहीं है।’

इतने में चंपा ने रूमाल ला कर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चंपा से पूछा - “सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तूने किया?” चंपा बोली - ‘नहीं, मैं तो भूल गई।’ तब चपला ने कहा - “भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गई?” चंपा बोली, “बात तो याद है।” तब फिर चपला ने कहा, “भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।”

इस बात का जवाब न दे कर चंपा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चंपा नहीं है। आखिर चपला यह कह कर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चंपा को एक किनारे ले गई और कुछ मामूली बातें करके बोली - ‘देख तो चंपा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’ नकली चंपा चपला के फेर में पड़ गई और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रख कर नकली चंपा को सूँघा दी जिसके सूँघते ही चंपा बेहोश हो कर गिर पड़ी।

चपला ने चंद्रकांता को पुकार कर कहा - ‘आओ सखी, अपनी चंपा का हाल देखो।’ चंद्रकांता ने पास आ कर चंपा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा - ‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चंपा से शरमाना पड़े।’

नहीं, ऐसा न होगा।’ कह कर चपला चंपा को पीठ पर लाद फव्वारे के पास ले गई और चंद्रकांता से बोली - ‘तुम फव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ।’ चंद्रकांता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़ कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चंपा की सूरत बदल गई और साफ नाजिम की सूरत निकल आई। देखते ही चंद्रकांता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली - ‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की।’

‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’ कह कर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गई, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अंदर बेहोश नाजिम को ले जा कर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कस कर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आ कर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा ले कर खड़ी हो गई और मारना शुरू किया।

‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा।’ इत्यादि कह कर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी? वह कोड़ा जमाए ही गई और बोली - ‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी। तू यहाँ क्यों आया था? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी? क्या बाग की सैर को जी चाहा था? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ।’ यह कह कर फिर मारना शुरू किया, और पूछा - ‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चंपा कहाँ गई?’

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला - ‘चंपा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़क कर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघ कर वह बेहोश हो गई, तब मैंने उसे मालती लता के कुँज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो।’

चपला ने कहा - ‘ठहर, छोड़ती हूँ।’ मगर फिर भी दस-पाँच कोड़े और जमा ही दिए, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चंद्रकांता से कहा - ‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चंपा को ढूँढ़ कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो।’

चंपा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जला कर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चंपा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघा कर होश में लाई और पूछा - ‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’

चंपा ने कहा - ‘मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठा कर सूँघते ही मैं बेहोश हो गई, फिर न मालूम क्या हुआ। हाय, हाय। न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे।’

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक ले कर चपला ने चंपा का बदन ढ़का और तब यह कह कर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की चंपा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चंद्रकांता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी।’ चंपा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली - ‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’

चपला ने कहा - ‘हाँ-हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ।’ बस फिर क्या था, चंपा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाए, यहाँ तक कि नाजिम घबरा उठा और जी में कहने लगा - ‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई।’

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चंद्रकांता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

बयान - 4 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचेगा और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अँधेरी रात होती तो कमंद लगा कर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकांत में गए और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचेगा। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले - ‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रखा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तंबाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तंबाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे।’

‘हाँ-हाँ, आइए, बैठिए, तंबाकू पीजिए।’ कह कर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रखा।

तेजसिंह ने कहा - ‘मैं हिंदू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तंबाकू के नहीं पिए थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा - ‘मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तंबाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तंबाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गई है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तंबाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गई है कि सिवाय उस तंबाकू के और कोई तंबाकू अच्छा नहीं लगता।’

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तंबाकू निकाल कर दिया और कहा - ‘तुम लोग भी पी कर देख लो कि कैसा तंबाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तंबाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा - ‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तंबाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे।’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तंबाकू ले लिया और खूब दोहरा जमा कर तेजसिंह के सामने लाए। तेजसिंह ने कहा - ‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे हो कर गिर पड़े और बेहोश हो गए।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अंदर घुस गए और नजर बचा कर बाग में पहुँचेगा। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमंद डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरंत उसे बेहोशी की बुकनी सूँघाई और जब बेहोश हो गई तो उसे वहाँ से उठा कर किनारे ले गए। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचेगा जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा दस-पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंडी की सूरत बनाए हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गए।

तेजसिंह को देख चपला बोली - ‘क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आ कर बैठ गई है?

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंडी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बना कर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी – ‘हाँ काम तो करने गई थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आई हूँ।’

चपला – ‘ऐसा। अच्छा तूने क्या देखा कह?’

नकली केतकी – ‘सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।’

सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चंद्रकांता, चपला और चंपा रह गई। अब केतकी ने हँस कर कहा - ‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।’

चंद्रकांता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेंद्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेंद्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है? आखिर चंद्रकांता ने केतकी से कहा - ‘हाँ, हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?’

केतकी ने कहा - ‘पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।’ यह कह उठ कर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी - ‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ कर बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के।’

केतकी ने जवाब दिया - ‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी।’

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गूँथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकी - (हँस कर) क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो।

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली - ‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ।’

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेंद्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेंद्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेंद्रसिंह कभी चिट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गरदन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चंद्रकांता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेंद्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी -

चंद्रकांता – ‘क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?’

तेजसिंह – ‘मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है। अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी ले कर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझा कर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जा कर वहाँ बंदोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।’

चंद्रकांता – ‘अफसोस। तुम उनको अपने साथ न लाए, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रखा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रखा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा कर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गए हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जा कर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अंदर जाने की इजाजात किसने दी थी?’

यह कह कर चंद्रकांता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुन कर हैरान हो गए और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले - ‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम। मैंने क्या धोखा खाया। पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा - ‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?’

तेजसिंह ने कहा - ‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में ला कर कैद करती या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देती, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।’

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गए और बहुत शर्मिंदा हो कर बोली - ‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने ख्याल न किया।’

तेजसिंह – ‘और कोई क्यों ख्याल करता। तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका ख्याल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को...? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अंदर जा कर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली - ‘क्या कहूँ, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’

अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया - ‘बड़ी ऐयार बनती थी, कहती थी हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला।’

चपला झुँझला उठी और चिढ़ कर बोली - ‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में ला कर बेहिसाब जूतियाँ न लगाऊँ।’

तेजसिंह ने कहा - ‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई, अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जा कर कैद करता हूँ।’

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चंद्रकांता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जा कर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जाएगा।

चंद्रकांता ने तेजसिंह से ताकीद की - ‘दूसरे-तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’

‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।’ कह कर तेजसिंह चलने को तैयार हुए।

चंद्रकांता उन्हें जाते देख रो कर बोली - ‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?’ इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबरा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत अच्छी तरह समझा-बुझा कर चंद्रकांता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आए। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आए हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा - ‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो?’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगा कर। देखो, मैं बड़ी रानी से कह कर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ।’

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुन कर सन्न हो गए और लगे खुशामद करने - ‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आ कर धोखा दे कर ऐसा जहरीला तंबाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी। देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गए। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’

नकली केतकी ने कहा - ‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार। जो फिर कभी ऐसा हुआ।’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गए।

डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही ।

बयान - 5 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चंद्रकांता, चपला और चंपा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुँचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आई जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अंदर गया, नाजिम को बँधा पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आ कर बोला - ‘चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जाएँ तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।’

नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आए और चलते-चलते आपस में बाच-चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फँस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।

अहमद – ‘भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चंपा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जाएगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएगी चंपा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जाएगी।’

नाजिम – ‘ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।’

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुँचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चंद्रकांता की लौंडी है, सामने से चली आ रही है।

तेजसिंह ने भी, जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गए हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।

तेजसिंह जान-बूझ कर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोच कर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है? नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़ कर देखा और कहा - ‘तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो।’

अहमद ने कहा - ‘किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें?, तुम क्या जानती हो?’

केतकी ने कहा - ‘मैं सब जानती हूँ। तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियाँ नसीब हों। जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किए क्या होगा?’

नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गए और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाए तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।

नाजिम ने कहा - ‘सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हजारों रुपए इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।’

केतकी ने कहा - ‘सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूँ, नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो, करो।’

तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई। नाजिम ने कहा - ‘अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।’

केतकी – ‘एक हजार रुपए से कम मैं हरगिज न लूँगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपए मेरे सामने रखो।’

नाजिम – ‘अब इस वक्त आधी रात को मैं कहाँ से रुपए लाऊँ, हाँ कल जरूर दे दूँगा।’

केतकी – ‘ऐसी बातें मुझसे न करो, मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।’

नाजिम - (आगे से रोक कर) ‘सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जा कर रुपए ले आते हैं।’

केतकी – ‘अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जा कर रुपए ले आओ।’

नाजिम – ‘अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जा कर रुपए ले आता हूँ।’

यह कह कर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी-खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपए लेने को चला।

नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटुए से निकाल कर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दाँव बचा कर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बाँध कर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते चले गए, यह भी ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाए और पीछा करे।

इधर नाजिम रुपए लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया।

क्रूरसिंह ने पूछा - ‘क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आ कर मुझको उठा रहे हो?’

नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चंद्रकांता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहाँ से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपए पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया।

क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुन कर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुन कर उछल पड़ा, और बोला - ‘लो, अभी हजार रुपए देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ’ यह कह कर उसने हजार रुपए संदूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।

जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ ले कर वहाँ पहुँचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला।

नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुँह से झट यह बात निकल पड़ी कि धोखा हुआ।’

क्रूरसिंह – ‘कहो नाजिम, क्या हुआ।’

नाजिम – ‘क्या कहूँ, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था, जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।’

क्रूरसिंह – ‘खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे। अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।’

नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की, पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।

बयान - 6 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेंद्रसिंह अपने महल में आए मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंद्रकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चंद्रकांता की तस्वीर अपने सामने रख कर बातें किया करना, या पलँग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेंद्रसिंह के बाप सुरेंद्रसिंह को वीरेंद्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।

वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आए तो उनकी घबराहट और भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा होने ही वाला था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुँचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह के केमरे में पहुँच कर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं।

वीरेंद्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले - ‘कहो भाई, क्या खबर लाए?’

तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चंद्रकांता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया और कहा - ‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है।’

वीरेंद्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा - ‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रखो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जाएगा।

तेजसिंह – ‘इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।’

यह कह कर तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेज कर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गए तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा - ‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।’

देवीसिंह ने कहा - ‘गुरु जी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।’

आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।

वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुँच कर एक अँधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहाँ जा कर तेजसिंह ठहर गए और देवीसिंह से बोले - ‘गठरी रख दो।’

देवीसिंह - (गठरी रख कर) गुरु जी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आए भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।

तेजसिंह - सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझ कर ले आया हूँ, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।

देवीसिंह – ‘मैं आपका ताबेदार हूँ, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।’

तेजसिंह - ‘सुनो और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह ख्याल रखो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गए, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाए देता हूँ। इसका खोलना बतलाए देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह ला कर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अंदर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अंदर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊँ, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदल कर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रह कर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।’

और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा-सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा - ‘इस चेहरे के मुँह में हाथ डाल कर इसकी जुबान बाहर खींचो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ-भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अंदर गए। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियाँ, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइए, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के, ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराए बल्कि खुशी मालूम हो।

सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बँधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहाँ ले आए हैं। लगा कलमा पढ़ने।

तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले - ‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए।’

अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।

अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आए। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा - ‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुँह में डाल दो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुँह में डालते ही जोर से दरवाजा बंद हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीदी राह से घर की तरफ रवाना हुए।

पहर भर दिन चढ़ा होगा, जब ये दोनों लौट कर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे।

वीरेंद्रसिंह ने पूछा - ‘अहमद को कहाँ कैद करने ले गए थे जो इतनी देर लगी?’ तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूँ, आज आपको भी वह जगह दिखाऊँगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदल कर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।’ इसके बाद वह सब बातें भी वीरेंद्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेंद्रसिंह ने बहुत पसंद किया।

स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गए। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे – ‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।’

आखिर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेंद्रसिंह राजा के साथ महल में चले गए और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आए, देवीसिंह को भी साथ लाए और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।

दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेंद्रसिंह को उस घाटी में ले गए जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देख कर बहुत ही खुश हुए और बोले - ‘भाई इस जगह को देख कर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।’

तेजसिंह ने कहा - ‘पहले-पहल इस जगह को देख कर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूँगा।’

वीरेंद्रसिंह इस बात को सुन कर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुन कर वीरेंद्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जाएगा।

वे दोनों वहाँ से रवाना होकर अपने महल आए। कुमार ने कहा - ‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।’

तेजसिंह ने कहा - ‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चंद्रकांता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।’ वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूँगा, इस तरह एकदम डरपोक हो कर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।’

तेजसिंह ने कहा - ‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चंद्रकांता का महल रह जाएगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।’

इस बात को वीरेंद्रसिंह ने भी पसंद किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।

कुछ दिन बाद वीरेंद्रसिंह ने अपने पिता सुरेंद्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े-से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिवाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात-भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जा कर हाल-चाल ले आएँ।

बयान - 7 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाए। इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेंद्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।

एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनाएँगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।

आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवा कर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आए। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।

क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठ कर चंद्रकांता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेंद्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेंद्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुँचाई और कहा – ‘वीरेंद्रसिंह जरूर चंद्रकांता की फिक्र में आया है, अफसोस। इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा।’ वह कह क्रूरसिंह से विदा हो बालादवी (टोह लेने के लिए गश्त करना) के वास्ते चला गया।

तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुँचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल ले कर वीरेंद्रसिंह के पास लौट आए। यह भी खबर लाए कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनाएँगे।

वीरेंद्रसिंह – ‘देखो, क्रूर ने अपने बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना।’

तेजसिंह – ‘सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चंद्रकांता के महल में न जा कर दरबार ही का हाल-चाल लूँगा। हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाए तो देखा जाएगा।’

वीरेंद्रसिंह – ‘सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चंद्रकांता से जरूर मुलाकात करूँगा।’

तेजसिंह – ‘आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।’

वीरेंद्र – ‘जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊँगा।’

तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चंद्रकांता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था, एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गए। आखिर तेजसिंह ने कहा - ‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें। जो कुछ होगा देखा जाएगा।’

शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गए कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ रात गई होगी, जब चंद्रकांता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।

रात अँधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई आश्चर्य न करना पड़ा, पहरे वालों को बचा कर कमंद फेंका और उसके जरिए बाग के अंदर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर-उधर निगाह दौड़ा कर देखने लगे।

बाग के बीचो-बीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।

चंद्रकांता को देखते ही वीरेंद्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कँपकँपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश हो कर गिर पड़े। मगर वीरेंद्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुँघा दिया और होश में ला कर कहा - ‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सँभालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जा कर बात कर आऊँ तब आपको ले चलूँ।’ यह कह कर उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़, उस जगह गए जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी थीं।

तेजसिंह को देखते ही चंद्रकांता बोली - ‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे? क्या इसी का नाम मुरव्वत है? अबकी आए तो अकेले ही आए। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, शर्मिंदा होकर की डींग क्यों मारते हैं। जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जी कर क्या करूँगी?’ कह कर चंद्रकांता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराए और बोले - ‘बस, इसी को नादानी कहते हैं। अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिए आता हूँ।’

यह कह कर तेजसिंह वहाँ गए जहाँ वीरेंद्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चंद्रकांता के पास लौटे। चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिल कर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गए मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गए और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।

अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सभी की खुशी भरी मजलिस देख कर जल मरा। तुरंत ही लौट कर क्रूरसिंह के पास पहुँचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा - ‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराए हुए हो?’

नाजिम - है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ। यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।

क्रूरसिंह – ‘तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है?’

नाजिम – ‘खुलासा बस यही है कि वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता के पास पहुँच गया और इस समय बाग में हँसी के कहकहे उड़ रहे हैं।

यह सुनते ही क्रूरसिंह की आँखों के आगे अँधेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहाँ तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुँचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले - ‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।’

क्रूरसिंह ने कहा - ‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिंदगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊँगा?’

जयसिंह - (गुस्से में आ कर) ‘क्रूरसिंह। ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े?’

क्रूरसिंह – ‘एक अदना आदमी।‘

जयसिंह - (दाँत पीस कर) ‘जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है?’

क्रूरसिंह – ‘वीरेंद्रसिंह।’

जयसिंह – ‘उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है। तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है? वीरेंद्रसिंह कहाँ हैं?’

क्रूरसिंह- ‘आपके चोर महल के बाग में।’

यह सुनते ही महाराज का बदन मारे गुस्से के काँपने लगा। तड़प कर हुक्म दिया – ‘अभी जा कर बाग को घेर लो, मै कोट की राह वहाँ जाता हूँ।’

बयान - 8 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चंपा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुंदा, लाल-लाल आँखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर से नीचे के नीचे दाँत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला - ‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरु जी मेरे।’ इसके बाद उछलता-कूदता चला गया। जाती दफा चंपा की टाँग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गए और डरे कि यह पिशाच कहाँ से आ गया, चंपा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले - ‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं।’

चंद्रकांता की तरफ देख कर बोले - ‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहाँ न आएँ इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।’

चंद्रकांता – ‘इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुन कर भागना पड़ा?’

तेजसिंह - (जल्दी से) ‘अब बात करने का मौका नहीं रहा।’

यह कह कर वीरेंद्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमंद के जरिए बाग के बाहर हो गए।

चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ। आँखों में आँसू पर चपला से बोली - ‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देख कर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रख कर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है। तुमने क्या ख्याल किया?’

चपला ने कहा - ‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता। हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेंद्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।’

चंपा बोली - ‘न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी?’

चंपा की बात पर चपला को हँसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं।

चपला ने कहा - ‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।’ बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।

देखते-ही-देखते सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चंद्रकांता ने बढ़ कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा - ‘इस समय आपके एकाएक आने...।’ इतना कह कर चुप हो रही।

जयसिंह ने कहा - ‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसीलिए चले आए। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी।’ यह कह कर महल की तरफ रवाना हुए।

चंद्रकांता, चपला और चंपा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आए और मन में बहुत शर्मिंदा हो कर कहने लगे - ‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी? ऐसे शैतान का तो मुँह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।’ यह सोच हरीसिंह नाम के एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूरसिंह को हाजिर करे।

हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुँचा जहाँ वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था।

हरीसिंह ने कहा - ‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।’

क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया? क्या चोर नहीं मिला? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गए थे।

हरीसिंह से पूछा - ‘महाराज क्या कह रहे हैं?’

उसने कहा - ‘अभी महल से आए हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।’ यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता-काँपता हरीसिंह महाराज के पास पहुँचा।

महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा - ‘क्यों बे क्रूर। बेचारी चंद्रकांता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेंद्र है।’

मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आँखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला - ‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुँचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।’

यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया - ‘बुलाओ नाजिम को।’

थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुँह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा - ‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुँचाई?’

उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला - ‘मैंने तो अपनी आँखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।’

जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया - ‘पचास कोड़े क्रूरसिंह को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जाएँ। बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जाएगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।’

अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूँज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गए, मगर मारे गुस्से के रात-भर उन्हें नींद न आई।

क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आए और एक जगह बैठ कर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा - ‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई। कल दीवान होंगे, यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ।’

नाजिम कहता था - ‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था? जहन्नुम में जाती चंद्रकांता और वीरेंद्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता।’

ये दोनों आपस में यूँ ही पहरों झगड़ते रहे।

अंत में क्रूरसिंह ने कहा - ‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेंद्र को गिरफ्तार न किया।’

नाजिम ने कहा - ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेंद्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूँ और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाए तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊँगा।’

क्रूरसिंह ने कहा - ‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेंद्रसिंह को अपनी आँखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।’

बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा - ‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पंडित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलाँ आदमी इस समय कहाँ है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जाएगा? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाए और वे यहाँ आ कर और कुछ दिन रह कर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाए। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े, उन्हें ले आएँ।’

आखिर क्रूरसिंह ने बहुत-से हीरे-जवाहरात अपनी कमर में बाँध, दो तेज घोड़े मँगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आए तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।

बयान - 9 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेंद्रसिंह को पहुँचा कर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचे। क्रूरसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा - ‘कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?’

नकली अहमद ने कहा - ‘मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौट कर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?’ सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा - ‘अब चुनारगढ़ गए हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता।’

अहमद ने कहा - ‘हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊँगा। सीधे चुनारगढ़ ही पहुँचता हूँ।’ यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आए और वीरेंद्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुँह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचेगा। इनकी हालत देख कर सब हैरान हो गए।

महाराज ने मुंशी से कहा - ‘पूछो, कौन है और क्या कहता है?’

तेजसिंह ने कहा – ‘हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खा कर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊँगा, घर कैसे पहुँचूँगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाए हो? उनको क्या दूँगा। दुहाई महाराज की, दुहाई-दुहाई।।’

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया - ‘क्रूरसिंह कहाँ है?’

चोबदार खबर लाया - ‘बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।’

रामलाल (तेजसिंह) बोला – ‘दुहाई महाराज की। यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है। मुसलमान सब उसके दोस्त हैं। दुहाई महाराज की। खूब तहकीकात की जाए।’

महाराज ने मुंशी से कहा - ‘तुम जा कर पता लगाओ कि क्या मामला है?’ थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आए और बोले - ‘महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गए हैं।’

महाराज ने कहा - ‘जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्यादे को बुलाओ।’

हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया।

महाराज ने पूछा - ‘क्रूरसिंह कहाँ गया है?’

प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। राम लाल ने फिर कहा - ‘दुहाई महाराज की, बिना मार खाए न बताएगा।’

महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनारगढ़ गए हैं।

महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुन कर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया -

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घंटे भर के अंदर जान बचा कर हमारी सरहद के बाहर हो जाएँ।

(2) उसका मकान लूट लिया जाए।

(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया अकेला रामलाल उठा ले जा सके ले जाए, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाए।

(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाए।

हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुँचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा - ‘पहले मुझको रुपए दे दो कि उठा ले जाऊँ और महाराज को आशीर्वाद करूँ। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ।’

मुंशी ने कहा - ‘अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है। ठहर जा, जल्दी क्यों करता है।’

नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया - ‘दुहाई महाराज की, मेरे रुपए मुंशी नहीं देता।’ कहता हुआ महाराज की तरफ चला।

मुंशी ने कहा - ‘लो,लो जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो।’

रामलाल ने कहा - ‘हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपए डकार जाता।’

इस पर सब हँस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपए आगे रखवा दिया और कहा - ‘ले, ले जा।’

रामलाल ने कहा - ‘वाह, कुछ याद है। महाराज ने क्या हुक्म दिया है? इतना तो मेरी जेब में आ जाएगा, मैं उठा के क्या ले जाऊँगा?’

मुंशी झुँझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के संदूक के पास ले जा कर खड़ा कर दिया और कहा - ‘उठा, देखें कितना उठाता है?’ देखते-देखते उसने दस हजार रुपए उठा लिए। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहाँ तक कि मुँह में भी कुछ रुपए भर लिए और रास्ता लिया।

सब हँसने और कहने लगे - ‘आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए।’

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनारगढ़ का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह रुपया लिए हुए वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और बोले - ‘आज तो मुनाफा कमा लाए, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाए।

वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘यह तो बताओ कि लाए कहाँ से?’

उन्होंने सब हाल कहा।

वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया।’

तेजसिंह ने कहा - ‘मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।’

वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘तो इस वक्त कहाँ से लाएँ?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘तमस्सुक लिख दो।’

कुमार हँस पड़े और उँगली से हीरे की अँगूठी उतार कर दे दी।

तेजसिंह ने खुश हो कर ले ली और कहा - ‘परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनारगढ़ जाऊँगा, देखूँ शैतान का बच्चा वहाँ क्या बंदोबस्त कर रहा है।’

बयान – 10 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर-भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चंद्रकांता की माँ) और चंद्रकांता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गए तो हँसी-हँसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा – ‘वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।’

महारानी ने बात छेड़ कर कहा - ‘आपने क्या सोच कर वीरेंद्र का आना-जाना बंद कर दिया। देखिए यह वही वीरेंद्र है जो लड़कपन से, जब चंद्रकांता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेंद्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेंद्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चंद्रकांता की शादी वीरेंद्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया।’

महाराज ने कहा - ‘मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गए। कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेंद्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।’

महारानी ने कहा - ‘देखें, अब वह चुनारगढ़ में जा कर क्या करता है?’ जरूर महाराज शिवदत्त को भड़काएगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा।

महाराज ने कहा - ‘खैर, देखा जाएगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।’

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गए। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।

बयान - 11 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनारगढ़ पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर ले कर हाल पूछा।

क्रूरसिंह ने कहा - ‘महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकांत में कहूँगा।’

दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकांत) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि - ‘लश्कर का इंतजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चंद्रकांता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।’

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया। आखिर महाराज ने कहा - ‘हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चारों ऐयारों के साथ पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को ले कर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर ले कर पहुँच जाएँगे।’

उन ऐयारों के नाम थे - पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह। महाराज ने पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्रूरसिंह के हवाले किया।

अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रूरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनारगढ़ जाने का हाल सुन कर महाराज जयसिंह ने घर-बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म है?’

यह सुन कर क्रूरसिंह के होश उड़ गए। महाराज शिवदत्त ने सभी को अंदर बुलाया और हाल पूछा। जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया। इसके बाद क्रूरसिंह और नाजिम की तरफ देख कर कहा - ‘अहमद भी तो आपके पास आया है।’

नाजिम ने पूछा, अहमद। वह कहाँ है? यहाँ तो नहीं आया।’

सभी ने कहा - ‘वाह! वहाँ तो घर पर गया था और यह कह कर चला गया कि मैं भी चुनारगढ़ जाता हूँ।’

नाजिम ने कहा - ‘बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं। उसी ने महाराज को भी खबर पहुँचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है।’

यह सुन क्रूरसिंह रोने लगा।

महाराज शिवदत्त ने कहा - ‘जो होना था सो हो गया, सोच मत करो। देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुंब को रखो, रुपए की मदद सरकार से हो जाएगी।’

क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया।

कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर क्रूरसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया। सब इंतजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया। ऐयार लोग भी अपने-अपने सामान से लैस हो गए। कई तरह के कपड़े लिए, बटुआ, ऐयारी का अपने-अपने कंधे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया, ज्योतिषी जी ने भी पोथी-पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी-बहुत ऐयारी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुंड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ। इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था। देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं?

बयान - 12 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिए चंद्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चंद्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई हैं और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है, जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुँवर वीरेंद्रसिंह उदास बैठे हैं, चंद्रकांता के विरह में मोरों की आवाज तीर-सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊँची साँस ले रहे हैं।

इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनंदी तिलक लगाए, हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा -

‘गए चुनारगढ़ क्रूर बहुरंगी लाए चारचितारी।

संग में उनके पंडित देवता, जो हैं सगुन विचारी।।

इनसे रहना बहुत सँभल के रमल चले अति कारी।

क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।’

यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुँह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दाँत निकाल कर दिखला दिए और उठ के चलता बना।

वीरेंद्रसिंह अपनी चंद्रकांता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा - ‘कुछ सुना?’

कुमार ने कहा - ‘क्या? नहीं तो, कहो।’

तेज सिंह ने कहा - ‘उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकांत में कहेंगे।’

वीरेंद्रसिंह सँभल गए और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आए और अपने कमरे में जा कर बैठे।

अब एकांत है, सिवाय इन दोनों के इस समय इस कमरे में कोई नहीं है। वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से पूछा - ‘कहो क्या कहने को थे?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनारगढ़ गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए। वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मंडली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सँभल कर रहिए। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई-न-कोई जरूर इस तरफ भी आएगा और आपको फँसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहिएगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न सूँघिएगा और इस बात का भी ख्याल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आएँ तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आँख के अंदर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से ले कर दिन में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा। अगर यह काम मैं न करूँ तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।’

और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने समझाईं जिनको खूब गौर के साथ कुमार ने सुना और तब पूछा - ‘तुमको कैसे मालूम हुआ कि चुनारगढ़ से इतनी मदद इसको मिली है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘किसी तरह मुझको मालूम हो गया, उसका हाल भी कभी आप पर जाहिर हो जाएगा, अब मैं रुखसत होता हूँ, राजा साहब या मेरे पिता मुझे पूछे तो जो मुनासिब हो सो कह दीजिएगा।

पहर रात रहे तेजसिंह ऐयारी के सामान से लैस होकर वहाँ से रवाना हो गए।

चपला बालादवी के लिए मर्दाने भेष में शहर से बाहर निकली। आधी रात बीत गई थी। साफ छिटकी हुई चाँदनी देख एकाएक जी में आया कि नौगढ़ चलूँ और तेजसिंह से मुलाकात करूँ। इसी ख्याल से कदम बढ़ाए नौगढ़ की तरफ चली। उधर तेजसिंह अपनी असली सूरत में ऐयारी के सामान से सजे हुए विजयगढ़ की तरफ चले आ रहे थे। इत्तिफाक से दोनों की रास्ते ही में मुलाकात हो गई। चपला ने पहचान लिया और नजदीक जा कर अपनी असली बोली में पूछा - ‘कहिए आप कहाँ जा रहे हैं?’

तेजसिंह ने बोली से चपला को पहचाना और कहा - ‘वाह। वाह।। क्या मौके पर मिल गईं। नहीं तो मुझे बड़ी मेहनत तुमसे मिलने के लिए करनी पड़ती क्योंकि बहुत-सी जरूरी बातें कहनी थीं। आओ इस जगह बैठो।’

एक साफ पत्थर की चट्टान पर दोनों बैठ गए। चपला ने कहा - ‘कहो वह कौन-सी बातें हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सुनो, यह तो तुम जानती ही हो कि क्रूर चुनारगढ़ गया है। अब वहाँ का हाल सुनो, चार ऐयार और एक पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी को महाराज शिवदत्त ने मदद के लिए उसके संग कर दिया है और वे लोग यहाँ पहुँच गए हैं। उनकी मंडली अब भारी हो गई और इधर हम तुम दो ही हैं, इसलिए अब हम दोनों को बड़ी होशियारी करनी पड़ेगी। वे ऐयार लोग महाराज जयसिंह को भी पकड़ ले जाएँ तो ताज्जुब नहीं, चंद्रकांता के वास्ते तो आए ही हैं, इन्हीं सब बातों से तुम्हें होशियार करने मैं चला था।’

चपला ने पूछा - ‘फिर अब क्या करना चाहिए?’

तेजसिंह ने कहा - ‘एक काम करो, मैं हरदयालसिंह नए दीवान को पकड़ता हूँ और उसकी सूरत बना कर दीवान का काम करूँगा। ऐसा करने से फौज और सब नौकर हमारे हुक्म में रहेंगे और मैं बहुत कुछ कर सकूँगा। तुम भी महल में होशियारी के साथ रहा करना और जहाँ तक हो सके एक बार मुझसे मिला करना। मैं दीवान तो बना रहूँगा ही, मिलना कुछ मुश्किल न होगा, बराबर असली सूरत में मेरे घर अर्थात हरदयालसिंह के यहाँ मिला करना। मैं उसके घर में भी उसी की तरह रहा करूँगा।’

इसके अलावा और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने चपला को समझाईं। थोड़ी देर तक चहल रही इसके बाद चपला अपने महल की तरफ रुखसत हुई। तेजसिंह ने बाकी रात उसी जंगल में काटी और सुबह होते ही अपनी सूरत एक गंधी की बना कई शीशी इत्र को कमर और दो-एक हाथ में ले विजयगढ़ की गलियों में घूमने लगे। दिन-भर इधर-उधर फिरते रहे। शाम के वक्त मौका देख हरदयालसिंह के मकान पर पहुँचे। देखा दीवान साहब लेटे हुए हैं और दो-चार दोस्त सामने बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं। बाहर-भीतर खूब सन्नाटा है।

तेजसिंह इत्र की शीशियाँ लिए सामने पहुँचे और सलाम कर बैठ गए, तब कहा - ‘लखनऊ का रहने वाला गंधी हूँ, आपका नाम सुन कर आप ही के लायक अच्छे-अच्छे इत्र लाया हूँ।’

यह कह शीशी खोल फाहा बनाने लगे। हरदयालसिंह बहुत रहमदिल आदमी थे, इत्र सूँघने लगे और फाहा सूँघ-सूँघ अपने दोस्तों को भी देने लगे। थोड़ी देर में हरदयालसिंह और उसके सब दोस्त बेहोश हो कर जमीन पर लेट गए। तेजसिंह ने सभी को उसी तरह छोड़ हरदयालसिंह की गठरी बाँध पीठ पर लादी और मुँह पर कपड़ा ओढ़ नौगढ़ का रास्ता लिया, राह में अगर कोई मिला भी तो धोबी समझ कर न बोला।

शहर के बाहर निकल गए और बहुत तेजी के साथ चल कर उस खोह में पहुँचे जहाँ अहमद को कैद किया था। किवाड़ खोल कर अंदर गए और दीवान साहब को उसी तरह बेहोश वहाँ रख मोहर की उनकी अँगूठी उँगली से निकाली, कपड़े भी उतार लिए और बाहर चले आए। बेड़ी डालने और होश में लाने की कोई जरूरत न समझी। तुरंत लौट विजयगढ़ आ कर हरदयालसिंह की सूरत बना कर उसके घर पहुँचे।

इधर दीवान साहब के भोजन करने का वक्त आ पहुँचा। लौंडी बुलाने आई, देखा कि दीवान साहब तो हैं नहीं, उनके चार-पाँच दोस्त गाफिल पड़े हैं। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और एकाएक चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुन नौकर और प्यादे आ पहुँचे तथा यह तमाशा देख हैरान हो गए। दीवान साहब को इधर-उधर ढूँढ़ा मगर कहीं पता न लगा।

बयान - 13 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आए मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा - ‘आप लोग कैसे बेहोश हो गए और दीवान साहब कहाँ हैं?’

उन्होंने कहा - ‘एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूँघते-सूँघते हम लोग बेहोश हो गए, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठतें हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे।’

ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा होने ही वाला ही था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि - ‘आप कहाँ गए थे?’

दोस्तों ने पूछा - ‘वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गए?’

दीवान साहब ने कहा - ‘वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूँघा, अगर सूँघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस... ।’

इतने में लौंडी ने अर्ज किया - ‘कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा।’

दीवान साहब ने कहा - ‘अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।’ यह कह कर पलँग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गए।

सवेरे तय वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयार का बटुआ कमर में बाँध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुँचे। महाराज अब नहीं आए थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गए।

दरबार में मौका पा कर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे - ‘महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनारगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पाँच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर ले कर आएँगे। इस वक्त बड़ी मुसीबत आन पड़ी है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदल कर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।’

महाराज जयसिंह ने कहा - ‘ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बंदोबस्त किया?’

धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सँभल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा - ‘पकड़ो उस चोबदार को।’

हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रख कर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गए थे वापस आ गए।

दीवान साहब ने कहा - ‘महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था और जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।’

महाराज को यह तमाशा देख कर खौफ हुआ, जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गए। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा - ‘क्यों जी अब क्या करना चाहिए? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भाई को हमारा दुश्मन बना कर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।’

दीवान साहब ने कहा - ‘महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार-पाँच सौ की जान ले-लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए माँगेगे तो राजा सुरेंद्रसिंह को देने में कोई हज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेंद्रसिंह का आना-जाना बंद कर दिया, अब भी राजा सुरेंद्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।’

हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले - ‘तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेंद्रसिंह और उनका लड़का वीरेंद्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेंद्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना ले कर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई फर्क नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाऊँगा और इस काम को करूँगा। महाराज ने अपनी मोहर लगा कर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अँगूठी की मोहर लगा कर उनके हवाले किया।’

हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आए और अंदर जनाने में न जा कर बाहर ही रहे, खाने को वहाँ ही मँगवाया। खा-पी कर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जाएँ। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकांत में ले जा कर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली - ‘हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जाएगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।’ चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेंद्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई।

नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली।

बयान - 14 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा। कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आए और किधर जाएँगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बंदर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिंदो में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।

उन ऐयारों ने जो चुनारगढ़ से क्रूर और नाजिम के संग आए थे, शहर में न आ कर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जा कर ऐयारी करें तथा जब जरूरत हो जंगल जफील बाजा कर इकठ्ठे हो जाया करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफा सब कोई अलग-अलग भेष बदल कर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आएँ तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसंद किया। नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया। वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदल कर महल में भी घुस आए और सब कुछ देख-भाल आए, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते।

जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गए, तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेंद्रसिंह को फँसाने के लिए चला। वहाँ पहुँच कर जिस कमरे में वीरेंद्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुँच पहरे वाले से कहा - ‘जा कर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।’ उस प्यादे ने जा कर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुँवर वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियाँ निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊँची साँस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई है और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है?

कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश हो कर बोले - ‘उसे जल्दी अंदर लाओ।’

हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चंद्रकांता का हाल पूछा।

चपला ने कहा - ‘अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरव्वत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबरा कर मुझको भेजा है और यह दो नाशपातियाँ अपने हाथ से छील-काट कर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।’

वीरेंद्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चंद्रकांता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गए, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चंद्रकांता की कसम कैसे टालते, झट नाशपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुँह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेंद्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गए। ललकार कर बोले - ‘खबरदार, मुँह में मत डालना।’

इतना सुनते ही वीरेंद्रसिंह रुक गए और बोले - ‘क्यों क्या है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको ख्याल न हुआ। कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी। आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार। बस सामने रंडी को देख, मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गए।’

तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेंद्रसिंह तो शर्मा गए और चपला के मुँह की तरफ देखने लगे मगर नकली चपला से न रहा गया, फँस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेंद्रसिंह भी जान गए कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊँचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाएँ।

तेजसिंह ने आवाज दी - ‘हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जाएगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।’

यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बाँध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूँस बेहोश किया और गठरी में बाँध किनारे रख बातें करने लगे।

तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा - ‘देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।’

कुमार बहुत शर्मिंदा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेंद्रसिंह के नाम लिखी थी।

कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले - ‘अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।’

तेजसिंह ने कहा - ‘हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।’

इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।

सवेरा होने ही वाला था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आए थे। तहखाने का दरवाजा खोल अंदर गए, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाए बैठे हैं। तेजसिंह को देख कर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले - ‘क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रखा है?’

तेजसिंह ने हँस कर जवाब दिया - ‘अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जाएँ। मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इंसाफ पसंद सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई हर्ज नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रख कर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?’

तेजसिंह - मैं आपकी सूरत बना कर आपके जनाने में नहीं गया, इससे आप खातिर जमा रखिए।

हरदयालसिंह - तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था। खैर, हाल कहो।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयालसिंह के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिए और अब खुलासा हाल कह कर बोले - ‘अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी ले कर दरबार में जाइए, राजा से मुझको माँग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूँ, नहीं तो वे ऐयार जो चुनारगढ़ से आए हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चल कर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा ख्याल रखिएगा, एक यह कि जहाँ तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिंदुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिए और महाराज से बराबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलाएँ।’

हरदयालसिंह ने कसम खा कर कहा - ‘मैं हमेशा तुम लोगों का खैर,ख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊँगा।’

तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाए। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।

ऐयार होने के कारण चुनारगढ़ के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आए, हरदयालसिंह से कहा कि - ‘मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊँगा।’ हरदयालसिंह ने कहा - ‘इसमें मुझको कुछ हर्ज नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूँ, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देख कर क्या करूँगा?’

तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बाहर लाए और होश में ला कर बोले - ‘अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।’ उन्होंने वैसा ही किया।

शहर में आ कर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग हो कर अकेले राजा सुरेंद्रसिंह के दरबार में गए। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ ले कर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेंद्रसिंह चिट्ठी पढ़ कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देख कर बोले - ‘मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ हर्ज नहीं, तेजसिंह आपके साथ जाएगा।’ यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानदारी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।

दीवान हरदयालसिंह की मेहमानदारी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत माँगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझा कर दीवान साहब के संग किया।

बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेंद्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत (सम्मान) दे कर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि - ‘इनके रहने के लिए मकान का बंदोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानदारी का बोझ अपने ऊपर समझो।’

दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहले वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इंतजाम कर दिया जो सब हिंदू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए। दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।

बयान - 15 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आए हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बंद कर आए थे और शहर से निकल जंगल में इधर-उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अँधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।

थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुँचे और भगवानदत्त को खड़े देख कर बोले - ‘क्यों जी, तुम नौगढ़ गए थे ना? क्या किया, खाली क्यों चले आए?’

तेजसिंह ने सभी को पहचानने के बाद जवाब दिया - ‘वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने।’

पन्ना – ‘अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।’

तेजसिंह – ‘अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूँ तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।’

जगन्नाथ – ‘पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है। बाजार से जा कर कुछ लाओ तो सब कोई खा-पी कर छुट्टी करें।’

भगवान – ‘अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।’

पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा - ‘हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सभी को पहचानता भी है, शायद घूमता-फिरता कहीं मिल जाए।’

भगवानदत्त ने यह सोच कर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया - ‘कोई जरूरी नहीं, कौन रात को मिलता है?’

भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अँधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके। तेजसिंह भी समझ गए कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़ंत हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बाँध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुआ। असली सूरत बनाए डेरे पर पहुँचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बंद कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलँग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।

इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषी जी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गए हों, मगर यह ख्याल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।

उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे दस-पंद्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिए चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ-ही-साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह, पन्नालाल को लिए दरबार में पहुँचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया। महाराज ने पूछा - ‘क्यों तेजसिंह किसको लाए हो?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘महाराज, उन पाँचों ऐयारों में से जो चुनारगढ़ से आए हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाए।’

महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहों से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा - ‘तेरा नाम क्या है?’

उसने कहा - ‘मक्कार खाँ उर्फ ऐयार खाँ।’

महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया - ‘बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जा कर इसको बंद करो और सख्त पहरे बैठा दो।’

हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गए। महाराज ने खुश हो कर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।

रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषी जी भेष बदले हुए दरबार में खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आए और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जा कर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषी जी प्यादे बन कर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिए जा रहे थे। पास पहुँच कर बोले – ‘ठहरो-ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी-साथी इसको किसी-न-किसी तरह छुड़ा ले जाएँगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूँगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा , सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।’

प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आए। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गए और अर्ज करते-करते रुक गए। तेजसिंह ने इनकी तरफ देख कर पूछा - ‘क्यों? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आए?’

प्यादों ने डरते-डरते कहा - ‘जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।’

तेजसिंह उनकी बात सुन कर चौंक पड़े और बोले - ‘मैंने क्या किया है? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ।’

प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे-के-तैसे खड़े रहे।

महाराज ने तेजसिंह की तरफ देख कर पूछा - ‘क्यों? क्या हुआ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘ऐयार चालाकी खेल गए, मेरी सूरत बना कर, उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गए।’

तेजसिंह ने अर्ज किया - ‘महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े-बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या बिसात है।’

तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।

बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुँचे, एक पेड़ के नीचे बैठ कर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पंडित जगन्नाथ से कहा - ‘आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है?’

ज्योतिषी जी ने रमल फेंका और कुछ गिन-गिना कर कहा - ‘बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रखा है।’

यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषी जी बार-बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अंदर गए, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषी जी ने फिर रमल फेंका और सोच कर कहा - ‘यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाए तो काम चले।’

लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आए और ऐयारी की फिक्र करने लगे।

बयान - 16 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गए। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

तेजसिंह को देख कर कुमार ने जोर से कहा - ‘आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गए कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गए?’

तेजसिंह - (हँस कर) ‘विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का?’

वीरेंद्रसिंह – ‘अपने बाप का।’

यह कह कर हँस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हँसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा - ‘कहो चंद्रकांता से मुलाकात हुई थी?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।’

कुमार – ‘वे लोग भी बड़े शैतान हैं।’

तेजसिंह – ‘और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनारगढ़ से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का। खैर, देखा जाएगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमार - ‘आज मैं कई आदमियों को लेकर सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गए, अब इस समय तीर खा कर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊँ। इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊँ, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।’

तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठ कर दोनों खाने लगे। वीरेंद्रसिंह मसाला पोंछ-पोछ कर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा - ‘आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘फीका अच्छा मालूम होता है।’

दो-तीन टुकड़े खा कर वीरेंद्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा - ‘बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।’

तेजसिंह ने कहा - ‘आप खाइए चाहे न खाइए मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है।’ आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धो कर बोले – ‘चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुँचा कर फिर फिरेंगे।’

वीरेंद्रसिंह ‘चलो’ कह कर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

थोड़ी दूर जा कर तेजसिंह बोले - ‘न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।’

कुमार ने कहा - ‘तुम मांस ज्यादा खा गए हो, उसने गर्मी की है।’ थोड़ी दूर गए थे कि तेजसिंह चक्कर खा कर जमीन पर गिर पड़े। वीरेंद्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूद कर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बाँध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जा कर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूँज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषी जी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश हो कर कहा - ‘वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फाँसा। अब क्या है, ले लिया।।’

क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुँवर वीरेंद्रसिंह बना हुआ था, गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा - ‘तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुँचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाए थे उसी के पास छोड़ आओ, आप ही लोग बाँध लेंगे।’ यह सुन कर रामनारायण घोड़े पर सवार हो कर नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझा कर चुनारगढ़ का रास्ता लिया।

तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि - ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी?’

दीवान साहब ने अर्ज किया - ‘नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूँगा।’ दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गए, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा - ‘कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।’

दीवान हरदयालसिंह यह सुन कर हैरान रह गए। अपने मकान पर जा कर सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेज कर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब ले कर आना। वह आदमी खत लिए शाम को नौगढ़ को पहुँचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जा कर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुला कर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिख कर कि वह यहाँ नहीं है, आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुला कर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेंद्रसिंह से अर्ज किया - ‘महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र ले कर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है। मैंने जवाब में लिख दिया है कि यहाँ नहीं हैं।’

राजा को यह सुन कर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा - ‘तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था।’

दीवान साहब ने कहा - ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जाएगा।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया - ‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊँ?’

दीवान जीतसिंह ने यह सुन कर कुमार की तरफ देखा और हँस कर जवाब दिया - ‘आपकी हिम्मत और जवाँमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फँस गया है, आप हैरान हो जाएँ इसकी क्या जरूरत है? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जाएगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फँस ही जाएगा, फिर इसके लिए सोचना क्या? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।’

वीरेंद्रसिंह ने जवाब दिया - ‘हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है। यह सोच कर कि वह चालाक है, छूट आएगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।’

जीतसिंह ने कहा - ‘सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा ख्याल है, खैर, देखा जाएगा।’

यह सुन राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।’

इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा - ‘कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।’ राजा और कुँवर वीरेंद्रसिंह चुप रहे मगर ख्याल इस बात का किसी के दिल से न गया।

विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा - ‘कहीं तेजसिंह का पता लगा?’

दीवान साहब ने कहा - ‘यहाँ तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जाएगा।’

ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिए वह आदमी आ पहुँचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा और बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है।

महाराज ने कहा - ‘उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गई है या नहीं?’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।’

महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गए। बात ही बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा - ‘किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रखी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेंद्रसिंह से शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब ख्याल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।’

महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चंद्रकांता के पास पहुँची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी। चंद्रकांता ने उसकी दशा देख पूछा - ‘क्यों? क्या है? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुँह से तो कह।’

इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुँह खोला ही था कि गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चंद्रकांता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा - ‘तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।’

आखिर चपला ने अपने को सँभाला और बहुत मुश्किल से कहा - ‘महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेंद्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।’ इतना कहा था कि पूरे तौर पर आँसू भर आए और खूब खुल कर रोने लगी। इसकी हालत से चंद्रकांता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा - ‘उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है? क्या तेरे रोने से वे छूट जाएँगे? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूँ?’

चंपा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली - ‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊँ?’

चपला ने कहा - ‘अभी तू इस लायक नहीं हुई है?’

चंपा बोली - ‘क्यों, अब मेरे में क्या कसर है? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती?’

चपला ने कहा - ‘हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊँ?’

चंद्रकांता ने कहा - ‘इसमें भी हुक्म की जरूरत है? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।’

चपला ने चंपा से कहा - ‘देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आए हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जाएगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुँह न देखूँगी।’

चंपा ने कहा - ‘इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूँगी।’

चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।

बयान - 17 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें, कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हाँथ-पाँव की तरफ ख्याल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान-बूझ कर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चंद्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाए कमंद कमर में कसे और खंजर भी लगाए हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाए जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढ़ाए जाना ही यही उसका काम है। आँखों से आँसू की बूँदे गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उँगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ ख्याल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गए। अब उसको इस बात का ख्याल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुँह से झट यह बात निकली - ‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली।’

अब चपला सँभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फँसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को सँभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनारगढ़ ही ले भी गए होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊँगी।

यह विचार कर चुनारगढ़ का रास्ता ढूँढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया, अब सीधे चुनारगढ़ की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने–धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनारगढ़ पहुँची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूँढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली और घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुँची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छः ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गए हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनारगढ़ में ही रह गए हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देख कर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा - ‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाए?’

पन्नालाल – ‘इस बार लाए तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आए हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।’

घसीटासिंह – ‘यहाँ तो नहीं आया।’

पन्नालाल – ‘फिर उसको पकड़ा किसने? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है।’

घसीटासिंह – ‘यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गए, इस वक्त किले में बंद पड़े रोते होंगे।’

पन्नालाल – ‘खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जाएगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।’

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोच कर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिंत हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औरत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक बंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गई और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गा कर फिर उसी गत को बंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगा कर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद बंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुला कर हुक्म दिया - ‘किसी को कहो, अभी जा कर उसको इस महल के नीचे ले आए जिसके गाने की आवाज आ रही है।’

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गए, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देख कर लोगों के होशो-हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले - ‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक (बैचेन) हैं’

चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई और गाने लगी। उसके गाने ने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जा कर बैठाया जाए और रोशनी का बंदोबस्त हो, हम भी आते हैं।

महारानी ने कहा - ‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाए।’

महाराज ने कहा - ‘पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जाएगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जाएगी।’

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुक कर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बाँधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बाँधे, जिस पर एक छोटा-सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाए, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियाँ पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घूँघरुदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छंदेली जिसके ऊपर काली चूड़ियाँ, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में साँकङा पहने, अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को और भी रौनक दे रहा था।

महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गए जिस पर रीझे हुए थे, झट मुँह से निकल पड़ा – ‘वाह। क्या कहना है।’ टकटकी बँध गई। महाराज ने कहा - ‘आओ, यहाँ बैठो।’ बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा, सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गए, ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा - ‘तुम्हारा मकान कहाँ है? कौन हो? क्या काम है? तुम्हारी जैसी औरत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।’ उसने जवाब दिया - ‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रंभा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूँ, अकसर दरबारों में जाती हूँ कि शायद कहीं मिल जाए क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।’

महाराज ने कहा - ‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूँ।’

चपला ने कहा - ‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुला कर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों (साज बजाने वाले) को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आए, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि - ‘सपर्दा हाजिर किए जाएँ।’ प्यादे दौड़ गए और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गए कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार हो कर आना ही पड़ा। आ कर जब एक चाँद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आए थे मगर अब खिल गए। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गए, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी इस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गए। दो चीज दरबारी की गाई थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बंद करके अर्ज किया - ‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूँ क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊँ?’

चपला की बात सुन कर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतार कर इनाम में दी और बोले - ‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना।’

रंभा ने कहा - ‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई हर्ज रहने में नहीं।’

महाराज ने हुक्म दिया कि रंभा के रहने का पूरा बंदोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाए। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुंदर मकान में रंभा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तयनात कर दिए गए।

आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रंभा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रंभा की तरफ न हो। जिसको देखो लंबी साँसें भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों?, कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी?’

रंभा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गा कर चपला ने अर्ज किया - ‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेंद्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिल कर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी। दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरंत वापस चली आई।’ इतना कह रंभा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिए बैठे थे। बोले - ‘आजकल तो वह मेरे यहाँ कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूँगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजाएगा।’

रंभा ने कहा - ‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाए, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।’

महाराज ने पूछा - ‘वह कौन-सा तरीका है?’

रंभा ने कहा - ‘एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाए और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजाएका (आपति) नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।’

महाराज ने कहा - ‘यह कौन-सी बड़ी बात है।’ इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जा कर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा - ‘तुम जा कर पहरे वालों को समझा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे, हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।’

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या हर्ज था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरंत समझ गए कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुँचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आए, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औरत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचेगा, रंभा ने आवाज दी - ‘आओ, आओ तेजसिंह, रंभा कब से आपकी राह देख रही है। भला वह बीन कब भूलेगी जो आपने नौगढ़ में बजाई थी।’ यह कहते हुए रंभा ने तेजसिंह की तरफ देख कर बाईं आँख बंद की। तेजसिंह समझ गए कि यह चपला है, बोले - ‘रंभा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूँगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला कहाँ मिलेगी।’

तेजसिंह और रंभा की बात सुन कर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रंभा गाए। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रखी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रंभा भी गाने लगी। अब जो समा बँधा उसकी क्या तारीफ की जाए। महाराज तो सकते की-सी हालत में हो गए। औरों की कैफियत दूसरी हो गई।

एक ही गीत का साथ दे कर तेजसिंह ने बीन हाथ से रख दी।

महाराज ने कहा – ‘क्यों और बजाओ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूँ इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा।’

रंभा ने भी कहा - ‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है। राजा सुरेंद्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गए मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजा कर रह गए। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।’

महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस। मेरे दरबार में यह न हुआ। रंभा ने भी बहुत कुछ हर्ज करके गाना मौकूफ (स्थगित) किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिए गए।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रंभा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेज कर तेजसिंह बुलाए गए। उस रोज भी एक बोल बजा कर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ। सब कोई आ कर पहले ही से जमा हो गए, मगर रंभा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दाँव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुँची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जाएगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोल कर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको ले कर चलते बने। थोड़ी दूर जा कर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जा कर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे।

चपला ने कहा - ‘आप मुझको शर्मिंदा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चंद्रकांता की बेमुरव्वत से मैंने यह काम किया।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी। गरजूँ तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा।’ यह सुन चपला हँस पड़ी और बोली - ‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।’

तेजसिंह ने कहा - ‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोडूँगा।’

चपला ने कहा - ‘मेरे पास क्या है जो मैं दूँ?’

उन्होंने कहा - ‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।’

चपला ने कहा - ‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलिएगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।’

चपला ने कहा - ‘जरूर कुछ करना चाहिए।’

बहुत देर तक आपस में सोच-विचार कर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गए।

बयान - 18 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रंभा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जा कर उसको बुला लाएँ और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा।

थोड़ी देर बाद चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि महाराज, रंभा तो अपने डेरे पर नहीं है, कहीं चली गई।’ महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि उसको जी से चाहने लगे थे। दिल में रंभा के लिए अफसोस करने लगे और हुक्म दिया कि फौरन उसे तलाश करने के लिए आदमी भेजे जाएँ। इतने में चेतराम ने आ कर दूसरी खबर सुनाई कि कैदखाने में तेजसिंह नहीं है। अब तो महाराज के होश उड़ गए। सारी महफिल दंग हो गई कि अच्छी गाने वाली आई जो सभी को बेवकूफ बना कर चली गई।

घसीटासिंह और चुन्नीलाल ऐयार ने अर्ज किया - ‘महाराज बेशक वह कोई ऐयार था जो इस तरह आ कर तेजसिंह को छुड़ा ले गया।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मगर काम उसने काबिल इनाम के किया। ऐयारों ने भी तो उसका गाना सुना था, महफिल में मौजूद ही थे, उन लोगों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए थे कि उसको न पहचाना। लानत है तुम लोगों के ऐयार कहलाने पर।’ यह कह महाराज गम और गुस्से से भरे हुए उठ कर महल में चले गए।

महफिल में जो लोग बैठे थे उन लोगों ने अपने घर का रास्ता लिया। तमाम शहर में यह बात फैल गई, जिधर देखिए यही चर्चा थी।

दूसरे दिन जब गुस्से में भरे हुए महाराज दरबार में आए तो एक चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज, वह जो गाने वाली आई थी असल में वह औरत ही थी। वह चेतराम मिश्र की सूरत बना कर तेजसिंह को छुड़ा ले गई। मैंने अभी उन दोनों को उस सलई वाले जंगल में देखा है।’

यह सुन महाराज को और भी ताज्जुब हुआ, हुक्म दिया कि बहुत-से आदमी जाएँ और उनको पकड़ लावें, पर चोबदार ने अर्ज किया - ‘महाराज इस तरह वे गिरफ्तार न होंगे, भाग जाएँगे, हाँ घसीटासिंह और चुन्नीलाल मेरे साथ चलें तो मैं दूर से इन लोगों को दिखला दूँ, ये लोग कोई चालाकी करके उन्हें पकड़ लें।’

महाराज ने इस तरकीब को पसंद करके दोनों ऐयारों को चोबदार के साथ जाने का हुक्म दिया। चोबदार ने उन दोनों को लिए हुए उस जगह पहुँचा जिस जगह उसने तेजसिंह का निशान देखा था, पर देखा कि वहाँ कोई नहीं है।

तब घसीटासिंह ने पूछा - ‘अब किधर देखें?’

उसने कहा - ‘क्या यह जरूरी है कि वे तब से अब तक इसी पेड़ के नीचे बैठे रहें? इधर-उधर देखिए, कहीं होंगे।’

यह सुन घसीटासिंह ने कहा - ‘अच्छा चलो, तुम ही आगे चलो।

वे लोग इधर-उधर ढूँढ़ने लगे, इसी समय एक अहीरिन सिर पर खचिए में दूध लिए आती नजर पड़ी। चोबदार ने उसको अपने पास बुला कर पूछा - ‘कि तूने इस जगह कहीं एक औरत और एक मर्द को देखा है?’

उसने कहा - ‘हाँ-हाँ, उस जंगल में मेरा अडार है, बहुत-सी गाय-भैंसी मेरी वहाँ रहती हैं, अभी मैंने उन दोनों के पास दो पैसे का दूध बेचा है और बाकी दूध ले कर शहर बेचने जा रही हूँ।’ यह सुन कर चोबदार बतौर इनाम के चार पैसे निकाल उसको देने लगा, मगर उसने इनकार किया और कहा कि मैं तो सेंत के पैसे नहीं लेती, हाँ, चार पैसे का दूध आप लोग ले कर पी लें तो मैं शहर जाने से बचूँ और आपका अहसान मानूँ।’

चोबदार ने कहा - ‘क्या हर्ज है, तू दूध ही दे दे।’ बस अहीरन ने खाँचा रख दिया और दूध देने लगी। चोबदार ने उन दोनों ऐयारों से कहा - ‘आइए, आप भी लीजिए।’ उन दोनों ऐयारों ने कहा - ‘हमारा जी नहीं चाहता।’ वह बोली - ‘अच्छा आपकी खुशी।’ चोबदार ने दूध पिया और तब फिर दोनों ऐयारों से कहा - ‘वाह। क्या दूध है। शहर में तो रोज आप पीते ही हैं, भला आज इसको भी तो पी कर मजा देखिए।’ उसके जिद्द करने पर दोनों ऐयारों ने भी दूध पिया और चार पैसे दूध वाली को दिए।

अब वे तीनों तेजसिंह को ढूँढ़ने चले, थोड़ी दूर जा कर चोबदार ने कहा - ‘न जाने क्यों मेरा सिर घूमता है।’ घसीटासिंह बोले - ‘मेरी भी वही दशा है।’ चुन्नीलाल तो कुछ कहना ही चाहते थे कि गिर पड़े। इसके बाद चोबदार और घसीटासिंह भी जमीन पर लेट गए। दूध बेचने वाली बहुत दूर नहीं गई थी, उन तीनों को गिरते देख दौड़ती हुई पास आई और लखलखा सुँघा कर चोबदार को होशियार किया। वह चोबदार तेजसिंह थे, जब होश में आए अपनी असली सूरत बना ली, इसके बाद दोनों की मुश्कें बाँध गठरी कस एक चपला को और दूसरे को तेजसिंह ने पीठ पर लादा और नौगढ़ का रास्ता लिया।

बयान - 19 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनारगढ़ गई तब चंपा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आए हैं और मैं अकेली हूँ, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाए। ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भी आराम से सोने में आए। यह सोच कर उसने एक मसाला बनाया। जब रात को सब लोग सो गए और चंद्रकांता भी पलँग पर जा लेटी तब चंपा ने उस मसाले को पानी में घोल कर जिस कमरे में चंद्रकांता सोती थी उसके दरवाजे पर दो गज इधर-उधर लेप दिया और निश्चिंत हो राजकुमारी के पलँग पर जा लेटी। इस मसाले में यह गुण था कि जिस जमीन पर उसका लेप किया जाए सूख जाने पर अगर किसी का पैर उस जमीन पर पड़े तो जोर से पटाखे की आवाज आए, मगर देखने से यह न मालूम हो कि इस जमीन पर कुछ लेप किया है। रात-भर चंपा आराम से सोई रही। कोई आदमी उस कमरे के अंदर न आया, सुबह को चंपा ने पानी से वह मसाला धो डाला। दूसरे दिन उसने दूसरी चालाकी की। मिट्टी की एक खोपड़ी बनाई और उसको रँग-रँगा कर ठीक चंद्रकांता की मूरत बना कर जिस पलँग पर कुमारी सोया करती थी तकिए के सहारे वह खोपड़ी रख दी, और धड़ की जगह कपड़ा रख कर एक हल्की चादर उस पर चढ़ा दी, मगर मुँह खुला रखा, और खूब रोशनी कर उस चारपाई के चारों तरफ वही लेप कर दिया।

कुमारी से कहा - ‘आज आप दूसरे कमरे में आराम करें।’

चंद्रकांता समझ गई और दूसरे कमरे में जा लेटी। जिस कमरे में चंद्रकांता सोई उसके दरवाजे पर भी लेप कर दिया और जिस कमरे में पलँग पर खोपड़ी रखी थी उसके बगल में एक कोठरी थी, चिराग बुझा कर आप उसमें सो गई।

आधी रात गुजर जाने के बाद उस कमरे के अंदर से जिसमें खोपड़ी रखी थी, पटाखे की आवाज आई। सुनते ही चंपा झट उठ बैठी और दौड़ कर बाहर से किवाड़ बंद कर खूब गुल करने लगी, यहाँ तक कि बहुत-सी लौंडियाँ वहाँ आ कर इकट्ठी हो गईं और एक ने जा कर महाराज को खबर दी कि चंद्रकांता के कमरे में चोर घुसा है। यह सुन महाराज खुद दौड़े आए और हुक्म दिया कि महल के पहरे से दस-पाँच सिपाही अभी आएँ। जब सब इकट्ठे हुए, कमरे का दरवाजा खोला गया। देखा कि रामनारायण और पन्नालाल दोनों ऐयार भीतर हैं। बहुत-से आदमी उन्हें पकड़ने के लिए अंदर घुस गए, उन ऐयारों ने भी खंजर निकाल चलाना शुरू किया। चार-पाँच सिपाहियों को जख्मी किया, आखिर पकड़े गए। महाराज ने उनको कैद में रखने का हुक्म दिया और चंपा से हाल पूछा। उसने अपनी कार्रवाई कह सुनाई। महाराज बहुत खुश हुए और उसको इनाम दे कर पूछा - ‘चपला कहाँ है?’ उसने कहा - ‘वह बीमार है’। फिर महाराज ने और कुछ न पूछा अपने आरामगाह में चले गए।

सुबह को दरबार में उन ऐयारों को तलब किया। जब वे आए तो पूछा - ‘तुम्हारा क्या नाम है?’

पन्नालाल बोला - ‘सरतोड़सिंह।’ महाराज को उसकी ढिठाई पर बड़ा गुस्सा आया। कहने लगे कि - ‘ये लोग बदमाश हैं, जरा भी नहीं डरते। खैर, ले जा कर इन दोनों को खूब होशियारी के साथ कैद रखो।’ हुक्म के मुताबिक वे कैदखाने में भेज दिए गए।

महाराज ने हरदयालसिंह से पूछा - ‘कुछ तेजसिंह का पता लगा?’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘महाराज अभी तक तो पता नहीं लगा। ये ऐयार जो पकड़े गए हैं उन्हें खूब पीटा जाए तो शायद ये लोग कुछ बताएँ।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, मगर तेजसिंह आएगा तो नाराज होगा कि ऐयारों को क्यों मारा? ऐसा कायदा नहीं है। खैर, कुछ दिन तेजसिंह की राह और देख लो फिर जैसा मुनासिब होगा, किया जाएगा, मगर इस बात का ख्याल रखना, वह यह कि तुम फौज के इंतजाम में होशियार रहना क्योंकि शिवदत्तसिंह का चढ़ आना अब ताज्जुब नहीं है।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘मैं इंतजाम से होशियार हूँ, सिर्फ एक बात महाराज से इस बारे में पूछनी थी जो एकांत में अर्ज करूँगा।’

जब दरबार बर्खास्त हो गया तो महाराज ने हरदयालसिंह को एकांत में बुलाया और पूछा - ‘वह कौन-सी बात है?’

उन्होंने कहा - ‘महाराज तेजसिंह ने कई बार मुझसे कहा था बल्कि कुँवर वीरेंद्रसिंह और उनके पिता ने भी फर्माया था कि यहाँ के सब मुसलमान क्रूर की तरफदार हो रहे हैं, जहाँ तक हो इनको कम करना चाहिए। मैं देखता हूँ तो यह बात ठीक मालूम होती है, इसके बारे में जैसा हुक्म हो, किया जाए।’

महाराज ने कहा - ‘ठीक है, हम खुद इस बात के लिए तुमसे कहने वाले थे। खैर,, अब कहे देते हैं कि तुम धीरे-धीरे सब मुसलमानों को नाजुक कामों से बाहर कर दो।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’ यह कह महाराज से रुखसत हो अपने घर चले आए।

बयान - 20 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेज कर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गए, मगर दिल उनका रंभा की जुल्फों में ऐसा फँस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था। उस महारानी से भी हँस कर बोलने की नौबत न आई।

महारानी ने पूछा - ‘आपका चेहरा सुस्त क्यों हैं?’

महाराज ने कहा - ‘कुछ नहीं, जागने से ऐसी कैफियत है।’

महारानी ने फिर से पूछा - ‘आपने वादा किया था कि उस गाने वाली को महल में ला कर तुम्हें भी उसका गाना सुनवाएँगे, सो क्या हुआ?’ जवाब दिया - ‘वह हमीं को उल्लू बना कर चली गई, तुमको किसका गाना सुनाएँ?’

यह सुन कर महारानी कलावती को बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछा - ‘कुछ खुलासा कहिए, क्या मामला है?’

‘इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं है, मैं ज्यादा नहीं बोल सकता।’ यह कह कर महाराज वहाँ से उठ कर अपने खास कमरे में चले गए और पलँग पर लेट कर रंभा को याद करने लगे और मन में सोचने लगे - ‘रंभा कौन थी? इसमें तो कोई शक नहीं कि वह थी औरत ही, फिर तेजसिंह को क्यों छुड़ा ले गई? उस पर वह आशिक तो नहीं थी, जैसा कि उसने कहा था। हाय रंभा, तूने मुझे घायल कर डाला। क्या इसी वास्ते तू आई थी? क्या करूँ, कुछ पता भी नहीं मालूम जो तुमको ढूँढूँ।’

दिल की बेताबी और रंभा के ख्याल में रात-भर नींद न आई। सुबह को महाराज ने दरबार में आ कर दरियाफ्त किया - ‘घसीटासिंह और चुन्नीलाल का पता लगा कर आए या नहीं?’

मालूम हुआ कि अभी तक वे लोग नहीं आए। ख्याल रंभा ही की तरफ था। इतने में बद्रीनाथ, नाजिम, ज्योतिषी जी, और क्रूरसिंह पर नजर पड़ी। उन लोगों ने सलाम किया और एक किनारे बैठ गए। उन लोगों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी देख कर और भी रंज बढ़ गया, मगर कचहरी में कोई हाल उनसे न पूछा। दरबार बर्खास्त करके तखलिए में गए और पंडित बद्रीनाथ, क्रूरसिंह, नाजिम और जगन्नाथ ज्योतिषी को तलब किया। जब वे लोग आए और सलाम करके अदब के साथ बैठ गए तब महाराज ने पूछा - ‘कहो, तुम लोगों ने विजयगढ़ जा कर क्या किया?’

पंडित बद्रीनाथ ने कहा - ‘हुजूर काम तो यही हुआ कि भगवानदत्त को तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया और पन्नालाल और रामनारायण को एक चंपा नामी औरत ने बड़ी चालाकी और होशियारी से पकड़ लिया, बाकी मैं बच गया।’

उनके आदमियों में सिर्फ तेजसिंह पकड़ा गया जिसको ताबेदार ने हुजूर में भेज दिया था सिवाय इसके और कोई काम न हुआ। महाराज ने कहा - ‘तेजसिंह को भी एक औरत छुड़ा ले गई। काम तो उसने सजा पाने लायक किया मगर अफसोस। यह तो मैं जरूर कहूँगा कि वह औरत ही थी जो तेजसिंह को छुड़ा ले गई, मगर कौन थी, यह न मालूम हुआ। तेजसिंह को तो लेती ही गई, जाती दफा चुन्नीलाल और घसीटासिंह पर भी मालूम होता है कि हाथ फेरती गई, वे दोनों उसकी खोज में गए थे मगर अभी तक नहीं आए। क्रूर की मदद करने से मेरा नुकसान ही हुआ। खैर, अब तुम लोग यह पता लगाओ कि वह औरत कौन थी जिसने गाना सुना कर मुझे बेताब कर दिया और सभी की आँखों में धूल डाल कर तेजसिंह को छुड़ा ले गई? अभी तक उसकी मोहिनी सूरत मेरी आँखों के आगे फिर रही है।’

नाजिम ने तुरंत कहा - ‘हुजूर मैं पहचान गया। वह जरूर चंद्रकांता की सखी चपला थी, यह काम सिवाय उसके दूसरे का नहीं।’ महाराज ने पूछा - ‘क्या चपला चंद्रकांता से भी ज्यादा खूबसूरत है?’

नाजिम ने कहा - ‘महाराज चंद्रकांता को तो चपला क्या पाएगी मगर उसके बाद दुनिया में कोई खूबसूरत है तो चपला ही है, और वह तेजसिंह पर आशिक भी है।’

इतना सुन महाराज कुछ देर तक हैरानी में रहे फिर बोले - ‘चाहे जो हो, जब तक चंद्रकांता और चपला मेरे हाथ न लगेंगी मुझको आराम न मिलेगा। बेहतर है कि मैं इन दोनों के लिए जयसिंह को चिट्ठी लिखूँ।’

क्रूरसिंह बोला - ‘महाराज जयसिंह चिट्ठी को कुछ न मानेंगे।’

महाराज ने जवाब दिया - ‘क्या हर्ज है, अगर चिट्ठी का कुछ ख्याल न करेंगे तो विजयगढ़ को फतह ही करूँगा।’ यह कह कर उन्होनें मीर मुंशी को तलब किया, जब वह आ गया तो हुक्म दिया, राजा जयसिंह के नाम मेरी तरफ से खत लिखो कि चंद्रकांता की शादी मेरे साथ कर दें और दहेज में चपला को दे दें।’

मीर मुंशी ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा जिस पर महाराज ने मोहर करके पंडित बद्रीनाथ को दिया और कहा - ‘तुम्हीं इस चिट्ठी को ले कर जाओ, यह काम तुम्हीं से बनेगा।’

पंडित बद्रनाथ को क्या हर्ज था, खत ले कर उसी वक्त विजयगढ़ की तरफ रवाना हो गए।

बयान - 21 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी और झुक कर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देख कर खुश हुए और बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गए तो महाराज ने पूछा - ‘क्यों जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाए हो? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराए होंगे क्योंकि हमने वहाँ भी तलाश करवाया था।’

तेजसिंह ने अर्ज किया - ‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के हाथ में फँस गया था, अब हुजूर के एकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनारगढ़ के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।’

महाराज यह सुन कर बहुत खुश हुए और अपने हाथ का कीमती कड़ा तेजसिंह को ईनाम दे कर कहा - ‘यहाँ भी दो ऐयारों को महल में चंपा ने गिरफ्तार किया जो कैद किए गए हैं। इनको भी वहीं भेज देना चाहिए।’ यह कह कर हरदयालसिंह की तरफ देखा। उन्होंने प्यादों को गठरी खोलने का हुक्म दिया, प्यादों ने गठरी खोली। तेजसिंह ने उन दोनों को होशियार किया और प्यादों ने उनको ले जा कर उसी जेल में बंद कर दिया, जिसमें रामनारायण और पन्नालाल थे।

तेजसिंह ने महाराज से अर्ज किया - ‘मेरे गिरफ्तार होने से नौगढ़ में सब कोई परेशान होंगे, अगर इजाजत हो तो मैं जा कर सभी से मिल आऊँ।’

महाराज ने कहा - ‘हाँ, जरूर तुमको वहाँ जाना चाहिए, जाओ, मगर जल्दी वापस चले आना।’

इसके बाद महाराज ने हरदयालसिंह को हुक्म दिया - ‘तुम मेरी तरफ से तोहफा ले कर तेजसिंह के साथ नौगढ़ जाओ।’

‘बहुत अच्छा’ कह के हरदयालसिंह ने तोहफे का सामान तैयार किया और कुछ आदमी संग ले तेजसिंह के साथ नौगढ़ रवाना हुए।

चपला जब महल में पहुँची, उसको देखते ही चंद्रकांता ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया और थो़ड़ी देर बाद हाल पूछने लगी। चपला ने अपना पूरा हाल खुलासा तौर पर बयान किया। थोड़ी देर तक चपला और चंद्रकांता में चुहल होती रही। कुमारी ने चंपा की चालाकी का हाल बयान करके कहा कि - ‘तुम्हारी शागिर्दा ने भी दो ऐयारों को गिरफ्तार किया है यह सुन कर चपला बहुत खुश हुई और चंपा को जो उसी जगह मौजूद थी, गले लगा कर बहुत शाबाशी दी।

इधर तेजसिंह नौगढ़ गए थे रास्ते में हरदयालसिंह से बोले - ‘अगर हम लोग सवेरे दरबार के समय पहुँचते तो अच्छा होता क्योंकि उस वक्त सब कोई वहाँ रहेंगे।’

इस बात को हरदयालसिंह ने भी पसंद किया और रास्ते में ठहर गए, दूसरे दिन दरबार के समय ये दोनों पहुँचे और सीधे कचहरी में चले गए। राजा साहब के बगल में वीरेंद्रसिंह भी बैठे थे, तेजसिंह को देख कर इतने खुश हुए कि मानों दोनों जहान की दौलत मिल गई हो। हरदयालसिंह ने झुक कर महाराज और कुमार को सलाम किया और जीतसिंह से बराबर की मुलाकात की। तेजसिंह ने महाराज सुरेंद्रसिंह के कदमों पर सिर रखा, राजा साहब ने प्यार से उसका सिर उठाया। तब अपने पिता को पालागन करके तेजसिंह कुमार की बगल में जा बैठे। हरदयालसिंह ने तोहफा पेश किया और एक पोशाक जो कुँवर वीरेंद्रसिंह के वास्ते लाए थे, वह उनको पहनाई जिसे देख राजा सुरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और कुमार की खुशी का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। राजा साहब ने तेजसिंह से गिरफ्तार होने का हाल पूछा, तेजसिंह ने पूरा हाल अपने गिरफ्तार होने का तथा कुछ बनावटी हाल अपने छूटने का बयान किया और यह भी कहा - ‘आती दफा वहाँ के दो ऐयारों को भी गिरफ्तार कर लाया हूँ जो विजयगढ़ में कैद हैं।’

यह सुन कर राजा ने खुश हो कर तेजसिंह को बहुत कुछ इनाम दिया और कहा - ‘तुम अभी जाओ, महल में सबसे मिल कर अपनी माँ से भी मिलो। उस बेचारी का तुम्हारी जुदाई में क्या हाल होगा, वही जानती होगी।’

बमूजिब मर्जी के तेजसिंह सभी से मिलने के वास्ते रवाना हुए। हरदयालसिंह की मेहमानदारी के लिए राजा ने जीतसिंह को हुक्म दे कर दरबार बर्खास्त किया। सभी के मिलने के बाद तेजसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह के कमरे में गए। कुमार ने बड़ी खुशी से उठ कर तेजसिंह को गले लगा लिया और जब बैठे तो कहा - ‘अपने गिरफ्तार होने का हाल तो तुमने ठीक बयान कर दिया मगर छूटने का हाल बयान करने में झूठ कहा था, अब सच-सच बताओ, तुमको किसने छुड़ाया?’ तेजसिंह ने चपला की तारीफ की और उसकी मदद से अपने छूटने का सच्चा-सच्चा हाल कह दिया। कुमार ने कहा - ‘मुबारक हो।’

तेजसिंह बोले - ‘पहले आपको मैं मुबारकबाद दे दूँगा तब कहीं यह नौबत पहुँचेगी कि आप मुझे मुबारकबाद दें।’ कुमार हँस कर चुप रहे।

कई दिनों तक तेजसिंह हँसी-खुशी से नौगढ़ में रहे मगर वीरेंद्रसिंह का तकाजा रोज होता ही रहा कि फिर जिस तरह से हो चंद्रकांता से मुलाकात कराओ। यह भी धीरज देते रहे।

कई दिन बाद हरदयालसिंह ने दरबार में महाराज से अर्ज किया - ‘कई रोज हो गए ताबेदार को आए, वहाँ बहुत हर्ज होता होगा, अब रुखसत मिलती तो अच्छा था, और महाराज ने भी यह फर्माया था कि आती दफा तेजसिंह को साथ लेते आना, अब जैसी मर्जी हो।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘बहुत अच्छी बात है, तुम उसको अपने साथ लेते जाओ।’ यह कह एक खिलअत दीवान हरदयालसिंह को दिया और तेजसिंह को उनके साथ विदा किया। जाते समय तेजसिंह कुमार से मिलने आए, कुमार ने रो कर, उनको विदा किया और कहा - ‘मुझको ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, मेरी हालत देखते जाओ।’

तेजसिंह ने बहुत कुछ ढाँढ़स दिया और यहाँ से विदा हो उसी रोज विजयगढ़ पहुँचे। दूसरे दिन दरबार में दोनों आदमी हाजिर हुए और महाराज को सलाम करके अपनी-अपनी जगह बैठे। तेजसिंह से महाराज ने राजा सुरेंद्रसिंह की कुशल-क्षेम पूछी जिसको उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ बयान किया। इसी समय बद्रीनाथ भी राजा शिवदत्त की चिट्ठी लिए हुए आ पहुँचे और आशीर्वाद दे कर चिट्ठी महाराज के हाथ में दे दी जिसको पढ़ने के लिए महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को दिया। खत पढ़ते-पढ़ते हरदयालसिंह का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। महाराज और तेजसिंह, हरदयालसिंह के मुँह की तरफ देख रहे थे, उसकी रंगत देख कर समझ गए कि खत में कुछ बेअदबी की बातें लिखी गई हैं। खत पढ़ कर हरदयालसिंह ने अर्ज किया यह खत तखलिए में सुनने लायक है।

महाराज ने कहा - ‘अच्छा, पहले बद्रीनाथ के टिकने का बंदोबस्त करो फिर हमारे पास दीवानखाने में आओ, तेजसिंह को भी साथ ले आना।’

महाराज ने दरबार बर्खास्त कर दिया और महल में चले गए। दीवान हरदयालसिंह पंडित बद्रीनाथ के रहने और जरूरी सामानों का इंतजाम कर तेजसिंह को अपने साथ ले कोट में महाराज के पास गए और सलाम करके बैठ गए। महाराज ने शिवदत्त का खत सुनाने का हुक्म दिया। हरदयालसिंह ने खत को महाराज के सामने ले जा कर अर्ज किया कि अगर सरकार खत पढ़ लेते तो अच्छा था।

महाराज ने खत पढ़ा, पढ़ते ही आँखें मारे गुस्से के सुर्ख हो गईं। खत फाड़ कर फेंक दिया और कहा - ‘बद्रीनाथ से कह दो कि इस खत का जवाब यही है कि यहाँ से चले जाए।’

इसके बाद थोड़ी देर तक महाराज कुछ देखते रहे, तब रंज भरी धीमी आवाज में बोले। ‘क्रूर के चुनारगढ़ जाते ही हमने सोच लिया था कि जहाँ तक बनेगा वह आग लगाने से न चूकेगा, और आखिर यही हुआ। खैर, मेरे जीते जी तो उसकी मुराद पूरी न होगी, साथ ही आप लोगों को भी अब पूरा बंदोबस्त रखना चाहिए।’

तेजसिंह ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया - ‘इसमें कोई शक नहीं कि शिवदत्त अब जरूर फौज ले कर चढ़ आएगा इसलिए हम लोगों को भी मुनासिब है कि अपनी फौज का इंतजाम और लड़ाई का सामान पहले से कर रखें। यों तो शिवदत्त की नीयत तभी मालूम हो गई थी जब उसने ऐयारों को भेजा था, पर अब कोई शक नहीं रहा।’

महाराज ने कहा - ‘मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि शिवदत्त के पास तीस हजार फौज है और हमारे पास सिर्फ दस हजार, मगर क्या मैं डर जाऊँगा।’

तेजसिंह ने कहा - ‘दस हजार फौज महाराज की और पाँच हजार फौज हमारे सरकार की, पंद्रह हजार हो गई, ऐसे गीदड़ के मारने को इतनी फौज काफी है। अब महाराज दीवान साहब को एक खत दे कर नौगढ़ भेजें, मैं जा कर फौज ले आता हूँ, बल्कि महाराज की राय हो तो कुँवर वीरेंद्रसिंह को भी बुला लें और फौज का इंतजाम उनके हवाले करें, फिर देखिए क्या कैफियत होती है।’

दीवान हरदयालसिंह बोले - ‘कृपानाथ, इस राय को तो मैं भी पसंद करता हूँ।’

महाराज ने कहा - ‘सो तो ठीक है मगर वीरेंद्रसिंह को अभी लड़ाई का काम सुपुर्द करने को जी नहीं चाहता? चाहे वह इस फन में होशियार हों मगर क्या हुआ, जैसा सुरेंद्रसिंह का लड़का, वैरा मेरा भी, मैं कैसे उसको लड़ने के लिए कहूँगा और सुरेंद्रसिंह भी कब इस बात को मंजूर करेंगे?’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘महाराज इस बात की तरफ जरा भी ख्याल न करें। ऐसा नहीं हो सकता कि महाराज तो लड़ाई पर जाएँ और वीरेंद्रसिंह घर बैठे आराम करें। उनका दिल कभी न मानेगा। राजा सुरेंद्रसिंह भी वीर हैं कुछ कायर नहीं, वीरेंद्रसिंह को घर में बैठने न देंगे बल्कि खुद भी मैदान में बढ़ कर लड़ें तो ताज्जुब नहीं।’

महाराज जयसिंह, तेजसिंह की बात सुन कर बहुत खुश हुए और दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया – ‘तुम राजा सुरेंद्रसिंह को शिवदत्त की गुस्ताखी का हाल और जो कुछ हमने उसका जवाब दिया है वह भी लिखो और पूछो कि आपकी क्या राय है? इस बात का जवाब आ जाने दो फिर जैसा होगा किया जाएगा, और खत भी तुम्हीं ले कर जाओ और कल ही लौट आओ क्योंकि अब देर करने का मौका नहीं है।’

हरदयालसिंह ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा और महाराज ने उस पर मोहर करके उसी वक्त दीवान हरदयालसिंह को विदा कर दिया। दीवान साहब महाराज से विदा हो कर नौगढ की तरफ रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था जब वहाँ पहुँचे। सीधे दीवान जीतसिंह के मकान पर चले गए। दीवान जीतसिंह खबर पाते ही बाहर आए, हरदयालसिंह को ला कर अपने यहाँ उतारा और हाल-चाल पूछा। हरदयालसिंह ने सब खुलासा हाल कहा।

जीतसिंह गुस्से में आ कर बोले – ‘आजकल शिवदत्त के दिमाग में खलल आ गया है, हम लोगों को उसने साधारण समझ लिया है? खैर, देखा जाएगा, कुछ हर्ज नहीं, आप आज शाम को राजा साहब से मिलें।’

शाम के वक्त हरदयालसिंह ने जीतसिंह के साथ राजा सुरेंद्रसिंह की मुलाकात करने गए। वहाँ कुँवर भी बैठे थे। राजा साहब ने बैठने का इशारा किया और हाल-चाल पूछा। उन्होंने महाराज जयसिंह का खत दे दिया, महाराज ने खुद उस चिट्ठी को पढ़ा, गुस्से के मारे कुछ बोल न सके और खत कुँवर वीरेंद्रसिंह के हाथ में दे दिया। कुमार ने भी उसको बखूबी पढ़ा, इनकी भी वही हालत हुई, क्रोध से आँखों के आगे अँधेरा छा गया। कुछ देर तक सोचते रहे इसके बाद हाथ जोड़ कर पिता से अर्ज किया - ‘मुझको लड़ाई का बड़ा हौसला है, यही हम लोगों का धर्म भी है, फिर ऐसा मौका मिले या न मिले, इसलिए अर्ज करता हूँ कि मुझको हुक्म हो तो अपनी फौज ले कर जाऊँ और विजयगढ़ पर चढ़ाई करने से पहले ही शिवदत्त को कैद कर लाऊँ।’

राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - ‘उस तरफ जल्दी करने की कोई जरूरत नहीं है, तुम अभी विजयगढ़ जाओ, क्षत्रियों को लड़ाई से ज्यादा प्यारा बाप, बेटा, भाई-भतीजा कोई नहीं होता। इसलिए तुम्हारी मुहब्बत छोड़ कर हुक्म देता हूँ कि अपनी कुल फौज ले कर महाराज जयसिंह को मदद पहुँचाओ और नाम कमाओ। फिर जीतसिंह की तरफ देख कर - ‘फौज में मुनादी करा दो कि रात-भर में सब लैस हो जाएँ, सुबह को कुमार के साथ जाना होगा।’ इसके बाद हरदयायलसिंह से कहा - ‘आज आप रह जाएँ और कल अपने साथ ही फौज तथा कुमार को ले कर तब जाएँ।’ यह हुक्म दे राजमहल में चले गए।

जीतसिंह दीवान हरदयालसिंह को साथ ले कर घर गए और कुमार अपने कमरे में जा कर लड़ाई का सामान तैयार करने लगे। चंद्रकांता को देखने और लड़ाई पर चलने की खुशी में रात किधर गई कुछ मालूम ही न हुआ।

बयान - 22 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


सुबह होते ही कुमार नहा-धो कर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा माँ-बाप से विदा होने के लिए महल में गए। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देख कर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत कर विदा माँगी, रानी ने आँसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ फेर कर कहा - ‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त माँ-बाप, ऐश, आराम किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी तुम्हारी पीठ न देखे।’

माँ-बाप से विदा हो कर कुमार बाहर आए, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा, आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे-पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और हरदयालसिंह से बोले - ‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूँ और सब इंतजाम कर लूँ तो शहर में चलूँ।’

हरदयालसिंह ने कहा - ‘आपकी राय बहुत अच्छी है। मैं भी पहले से चल कर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूँ फिर लौट कर आपको साथ ले कर चलूँगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाइए।’

हरदयालसिंह विजयगढ़ पहुँचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गए और खुलासा हाल बयान करके बोले - ‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे हैं।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले - ‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत अच्छा है, मगर वीरेंद्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब दरबारियों को ले जा कर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ।’

बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को ले कर रवाना हुए। यह खबर तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और दूर ही से बोले - ‘मुबारक हो।’ तेजसिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और हाल-चाल पूछा।

तेजसिंह ने कहा - ‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जाएगा।’ यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय दरबारियों के आ पहुँचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर किया और सज-सजा कर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को कुँवर वीरेंद्रसिंह आए हैं, इस वक्त किले में जाएँगे। सवारी देखने के लिए अपने-अपने मकानों पर औरत-मर्द पहले ही से बैठ गए और सड़कों पर भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आँखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं। यह खबर महाराज को भी पहुँची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में जा कर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुन कर वे प्रसन्न हुईं और बहुत-सी औरतों के साथ जिनमें चंद्रकांता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए ऊँची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी-सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।

कुछ सवार, जो धीरे-धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जिर्र (कवच) पहने हुए थे जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक-दमक मालूम होती थी। हाथ में झंडेदार नेजा लिए, ढाल-तलवार लगाए जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे-आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे हुए घोड़े पर जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियाँ कर रहा था, पर कुँवर वीरेंद्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा (एक कल्पित पक्षी) के पर की लंबी कलगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्र पहने हुए थे। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े-बड़े पन्ने के दानों का कंठा और भुजबंद भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़ कर खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर-कमान लगाए एक गुर्ज करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत, जवाँमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे। शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आँखों में चकाचौंध-सी आ जाती थी। महारानी ने, जो वीरेंद्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुँह से निकल पड़ा - ‘अगर चंद्रकांता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेंद्र। चाहे जो हो, मैं तो इसी को दामाद बनाऊँगी।’ चंद्रकांता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं। चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से जाता रहा, कुमार की तस्वीर आँखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बँध गई।

इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुँचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आए और जब तक वे किले के अंदर आएँ महाराज भी वहाँ पहुँच गए। वीरेंद्रसिंह ने महाराज को देख कर पैर छुए, उन्होंने उठा कर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े सीधे महल में ले गए। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार ने चरण छुए, महारानी की आँखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गए। बाएँ तरफ महारानी और दाहिनी तरफ कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को ढूँढ़ रही हों। चंद्रकांता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी, मिलने के लिए तबीयत घबरा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिए हुए दीवानखाने में पहुँचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुंदर कमरा उनके लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा हो कर कुमार अपने कमरे में गए। तेजसिंह भी पहुँचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चंद्रकांता को महल में न देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में आँख लग गई।

सुबह जब महाराज दरबार में गए, वीरेंद्रसिंह स्नान-पूजा से छुट्टी पा दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार में गए। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा सुरेंद्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़ कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया जाए और गल्ले वगैरह का पूरा इंतजाम किया जाए, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हो। कुमार ने अर्ज किया - ‘महाराज, सामान सब साथ आया है।’

महाराज ने कहा - ‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है। सामान आया है तो क्या हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आएगा। अब हम कुल फौज का इंतजाम तुम्हारे सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बंदोबस्त और इंतजाम करो।’

कुमार ने तेजसिंह की तरफ देख कर कहा - ‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो-दो हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर-उधर पाँच-पाँच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बंदोबस्त कर दो। जासूसों को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देख कर जैसा होगा इंतजाम करेंगे।’ हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए।

इस इंतजाम और हमदर्दी को देख कर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आ कर अदब से सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज ले कर सरकार से मुकाबला करने के लिए रवाना हो चुका है, दो-तीन दिन तक नजदीक आ जाएगा।

कुमार ने कहा - ‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।’

दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठ कर फौज की कवायद देखने गए। हरदयालसिंह ने मुसलमानों को बहुत कम कर दिया था तो भी एक हजार मुसलमान रह गए थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर मुसलमानों की सूरत देख त्योरी चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गए और धीरे से पूछा - ‘इन लोगों को जवाब दे देना चाहिए?’

कुमार ने कहा - ‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन के साथ हो जाएँगे। मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाए। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने पर पीछे से तोप मार कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग एक दफा तो खूब लड़ जाएँगे, मुफ्त मारे जाने से लड़ कर मरना बेहतर समझेंगे।’

इस राय को महाराज ने बहुत पसंद किया और दिल में कुमार की अक्ल की तारीफ करने लगे।

जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया - ‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है, अगर इजाजत हो तो जाऊँ?

महाराज ने कहा - ‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते जल्दी लौट आना।’ यह कह कर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिए। कुमार शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुँच कर दो सांभर तीर से मार कर फिर और शिकार ढूँढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुँचे।

कुमार से पूछा - ‘क्या सब इंतजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आए?’

तेजसिंह ने कहा - ‘क्या आज ही हो जाएगा? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जाएगा। इस वक्त मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आएँ जिसमें अहमद को कैद किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूँ कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।’

‘हाँ, मैं भी चलूँगा।’ कह कर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएँ और दोनों सांभरों का जो शिकार किए हैं, उठवा ले जाएँ। थोड़ी देर में कुमार और तेजसिंह तहखाने के पास पहुँचे और अंदर घुसे। जब अँधेरा निकल गया और रोशनी आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब तेजसिंह ने कुमार से पूछा - ‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं कि नहीं?’

कुमार ने कहा - ‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है?’ यह कह झट आगे बढ़ शेर के मुँह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया।

तेजसिंह ने कहा - ‘याद तो है।’

कुमार ने कहा - ‘क्या मैं भूलने वाला हूँ।’ दोनों अंदर गए और सैर करते-करते चश्में के किनारे पहुँचे। देखा कि अहमद और भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है। कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुक कर सलाम किया और बोले – “अब तो हम लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।”

कुमार ने कहा - ‘हाँ थोड़े रोज और सब्र करो।’

कुछ देर तक वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़ कर खाते रहे। इसके बाद तेजसिंह ने कहा - ‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।’

कुमार ने कहा - ‘चलो।’ दोनों बाहर आए।

तेजसिंह ने कहा - ‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप ही बंद कीजिए।’ कुमार ने यह कह कर - अच्छा लो, हम ही बंद कर देते हैं।’ दरवाजा बंद कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुँचे तो तेजसिंह ने कहा - ‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा जाओ।’ यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गए और कुमार किले में चले आए, घोड़े से उतर कमरे में गए, आराम किया। थोड़ी रात बीते तेजसिंह कुमार के पास आए।

कुमार ने पूछा - ‘कहो, क्या हाल हैं?’

तेजसिंह ने कहा - ‘सब इंतजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घंटे की छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।’

यह सुन वीरेंद्रसिंह हँस पड़े और बोले - ‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे इस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई।’ यह सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले - ‘आप क्या कहते हैं।’

कुमार ने कहा - ‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गए थे जहाँ अहमद और भगवानदत्त बंद हैं?’

अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुँह देखने लगे। तेजसिंह की यह हालत देख कर कुमार को भी ताज्जुब हुआ।

तेजसिंह ने कहा - ‘भला यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया?’ कुमार ने सब कुछ कह दिया।

तेजसिंह बोले – ‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।’

कुमार ने कहा - ‘तुम क्या कहते हो समझ में नहीं आता।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी उसको रमल के जरिए से पता देता है।’

कुमार यह सुन दंग हो गए और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे।

तेजसिंह ने कहा - ‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी तो निकल गए होंगे मगर मैं जा कर ताले का बंदोबस्त करूँगा।’

कुमार ने पूछा - ‘ताले का बंदोबस्त क्या करोगे?’

तेजसिंह ने कहा - ‘उस फाटक में और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बंद करने में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊँगा।’

कुमार ने कहा - ‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।’ तेजसिंह ने कहा - ‘अभी नहीं, जब तक चुनारगढ़ पर फतह न पाएँगे न बताएँगे, नहीं तो फिर धोखा होगा।’

कुमार ने कहा - ‘अच्छा तुम्हारी मर्जी।’

तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहले ही लौट आए। सुबह को जब कुमार सो कर उठे तो तेजसिंह से पूछा - ‘कहो तहखाने का क्या हाल है?’ उन्होंने जवाब दिया - ‘कैदी तो निकल गए मगर ताले का बंदोबस्त कर आया हूँ।’

नहा-धो कर कुछ खा कर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गए। महाराज को सलाम करके दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गए। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज और पास आ गई है, अब दस कोस पर है।

कुमार ने महाराज से अर्ज किया - ‘अब मौका आ गया है कि मुसलमानों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाए।’ महाराज ने कहा - ‘अच्छा भेज दो।’

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अपना एक तोपखाना भी इस मुसलमानी फौज के पीछे रवाना करो।’ फिर कान में कहा – “अपने तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिंदा किसी को न जाने दें।”

तेजसिंह इंतजाम करने के लिए चले गए, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गए। महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गए। छटपटाते रह गए मगर आज भी चंद्रकांता की सूरत न दिखी, लेकिन चंद्रकांता ने आड़ से इनको देख लिया।

बयान - 23 chandrakanta novel by devaki nandan khatri चंद्रकांता  देवकीनंदन खत्री उपन्यास पहला अध्याय


शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेंद्रसिंह गए। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुँचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘महाराज, चोर-महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी हो कर भी निकल गए।’

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गए। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुँह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियाँ दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं - ‘चंद्रकांता और चपला का सिर काट कर कोई ले गया।’ यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आँखों से आँसू जारी हो गए, तेजसिंह काठ की मूरत बन गए। महाराज ने अपने को सँभाला और कुमार की अजब हालत देख कर गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गए। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चंद्रकांता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जा कर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अंदर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दाँत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।

चंद्रकांता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रो कर कहती थीं - ‘हाय बेटी। तू कहाँ गई। उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई। हाय-हाय। अब मैं जी कर क्या करूँगी। तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो?’ महाराज कहते थे - ‘अब क्रूर की छाती ठंडी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आए विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।’

एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेंद्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आए, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रखा तो साँस ठंडी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले - ‘गजब हो गया। हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेंद्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जाएँगे, मगर हाय। विधाता को यह भी अच्छा न लगा। अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें। हाय-हाय। अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेंद्रसिंह की जान भी इसी मकान में जाएगी। हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया। विधाता तूने क्या किया?’

इतने में तेजसिंह आए। देखा कि वीरेंद्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेंद्रसिंह की लाश के पास बैठ गए और जोर से बोले - ‘कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूँगा।’ यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फाँद कर एक आदमी ने आ कर हाथ पकड़ लिया।

तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिंदूर से रंगा हुआ था उसने कहा -

‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान।

यह सब खेल ठगी को मान, लाश देख कर लो पहचान।

उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो।।’

यह कह वह दाँत दिखलाता-उछलता-कूदता भाग गया।

(पहला अध्याय समाप्त)

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